पुलिस भी मानती है कि गंगा पार का इलाका कोसी दियारा चंबल के बीहड़ से कम नहीं है। लोग यहां के गांवों में रहना नहीं चाहते। ग्रामीणों की माने तो पूर्व जन्म का फल है कि उन्हें इस हालत में यहां रहना पड़ रहा है। ये दर्द या पीड़ा किसी एक ग्रामीण की जुबान नहीं वरन इस इलाके के तीन पंचायतों में रहने वाले करीब पचास हजार वाशिंदों का अलाप है जो खुद को सरकार व विकास से कटा मानते है। तीन जिलों मधेपुरा, पूर्णिया व भागलपुर जिलों का संगम होने के बावजूद विकास इस क्षेत्र का विकास नहीं हुआ है। विकास के इस सच से आये दिन पुलिस व प्रशासन के अधिकारी होते हैं। आयोग के प्रेक्षक बन कर आए अधिकारी जब दियारा से लौटे तो उन्होंने भी माना कि यहां की स्थिति चंबल के बीहड़ से कम नहीं है। नवगछिया से शुरू होता है इस इलाके का दर्द। विजय घाट पर पीपा पुल पर वाहन चलाना जहां खतरे से खाली नहीं वहीं उसके आगे का सफर तो किसी रेगिस्तानी इलाकों में वाहन लेकर चलने जैसा था। इस इलाके में न तो खुशहाली दिखती है न हरियाली। बस एक ही पीड़ा हर चेहरे पर देखने को मिलती जिसे अधिकारियों के सामने कदवा ठाकुरजी टोला बूथ के पास मीना देवी नामक एक महिला ने उबाल खाकर रखा। उसका कहना था कि सड़क विहीन इस इलाके में लंबे समय से चलने के कारण आंखों में धूल की मोटी परत ऐसी जम गयी है कि उनके जैसी दर्जनों महिलाओं की आंखें खराब हो गई है।
21 अप्रैल, 2009
नवगछिया अनुमंडल का कोसी दियारा चंबल के बीहड़ से कम नहीं है
नवगछिया अनुमंडल के कोसी दियारा वर्षों से उपेक्षित है। यहां विकास की किरण नहीं पहुंची है। यह इलाका चंबल के बीहड़ से कम नहीं है। दियारा में बालू ही बालू है। यहां तक पहुंचने की हिम्मत पुलिस और प्रशासन के अधिकारी भी नहीं जुटा पाते। इस सच को खुद चुनाव प्रेक्षक ने अपनी आंखों से देखा है।
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