27 अप्रैल, 2009

नवगछिया को इंतजार है किसी तारणहार की

कृषि उत्पादन में अव्वल रहने के बाद भी गंगा नदी के उत्तरी इलाकों में आर्थिक खुशहाली नहीं आ सकी है। यहां केला, मकई, कलाई और लीची का जबरदस्त उत्पादन होता है लेकिन इसपर आधारित उद्योग-धंधे यहां नहीं हैं। बिचौलिए उनके कृषि उत्पादों को बाहर बेचकर मालामाल हो रहे हैं जबकि किसान विपन्न हो रहे हैं। राजनीतिक तौर आजतक न तो किसानों को संबल मिला और न ही इसपर आधारित उद्योग-धंधों को प्रोत्साहन ही। यह किसी राजनीतिक दलों के लिए चुनावी मुद्दा भी नहीं है।

गंगा और कोसी का दोआब क्षेत्र है नवगछिया। इस अनुमंडल के सात प्रखंडों की खेतों में दोनो नदियां हर साल इतनी उपजाऊ मिट्टियां भर देती हैं कि साल भर किसानों को पेट भरने में कोई परेशानी नहीं होती। यहां 75 हजार हेक्टेयर में केले की खेती होती है। करीब 40 गांवों में किसान इसके उत्पादन में जुटे हैं। यहां उत्पादित केला महाराष्ट्र, पंजाब, बंगाल, झारखंड, उत्तर प्रदेश सहित 14 राज्यों में भेजे जाते हैं। केले के सीजन में लगभग एक सौ ट्रांसपोर्ट कंपनियां एनएच के किनारे कार्यरत हो जाती हैं। यहां का अर्थशास्त्र बिचौलिया के इर्द-गिर्द ही घूमता है। बिचौलिया किसानों के खेतों तक पहुंचते हैं लेकिन उन्हें तभी उत्पाद का पैसा देते हैं, जब यहां से खरीदा गया माल बाजार में बिक जाता है। किसान को एक हेक्टेयर केला उपजाने में 20 से 25 हजार रूपये का खर्च आता है और अगर प्राकृतिक विपदा न आए तो एक लाख रुपए तक की कमाई हो जाती है। पिछले साल गंगा नदी के बाढ़ से हजारो हेक्टेयर में लगी केले की फसल बर्बाद हो गयी। बाबजूद इसके फिर से किसान उत्साहित हैं और इस साल उत्पादन का नया रिकार्ड बनाने में जुट गए हैं। जमुनिया के शिवनंदन यादव कहते हैं कि केले की फसल के लिए दोमट मिट्टी चाहिए, जो यहां है। उनका कहना है कि बिचौलिया प्रथा के कारण यहां के कृषक विपन्न होते जा रहे हैं।

गंगा और कोसी दियारा की प्रमुख खेती मकई, नवगछिया की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार है। तकरीबन 25 हजार हेक्टेयर में मकई उपजाया जाता है। कोसी दियारा ने 125 मन बीधा मकई उत्पादित करने का रिकार्ड बनाया है। हर सीजन में यहां से मकई पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, बंगाल जैसे राज्यों को भेजी जाती है। खरीक के विनोद चौधरी बताते हैं कि मकई को क्षेत्र में दुधारू फसल कहा जाता है लेकिन किसानों से ज्यादा बिचौलियों के लिए। हर सीजन में नवगछिया में 50 से अधिक मकई क्रय केन्द्र खुल जाते हैं लेकिन किसानों को वाजिब मूल्य नहीं मिल पाता है। मकददपुर के राजेन्द्र सिंह बताते हैं कि बिचौलिया खेत से ही औने-पौने मूल्य पर मकई खरीद लेते हैं। सरकारी तौर पर छोटे मकई उत्पादकों को कभी संरक्षण नहीं मिला है, नतीजतन बिचौलियों पर से उनकी निर्भरता कम नहीं हुई है। उन्होंने बताया कि नवगछिया अनुमंडल में उत्पादित मकई की गुणवत्ता काफी उम्दा है। यह अपनी मिठास के कारण बाहर के बाजारों में ज्यादा पसंद की जाती है। अगर मकई आधारित उद्योग यहां लगा दिए जाएं तो बाहर के बाजार से निर्भरता समाप्त हो जाएगी।

नवगछिया अनुमंडल में कलाई, आम और लीची का भी बढि़या उत्पादन होता है लेकिन यह भी किसानों की आर्थिक स्थिति को उपर उठाने में कारगर नहीं हो सका। सोनवर्षा के अभय कुमार छोटू कहते हैं 'यह सरकारी तंत्र की विफलता ही कही जाएगी कि यहां के लोग अपने उत्पादों को औने-पौने दामों पर बेचते हैं और जब वह कई रुपों में बढि़या पैकों के माध्यम से उनके हाथों तक वापस पहुंचता है तो उसके लिए वे मुंहमांगी कीमत अदा करते हैं।' श्री छोटू कहते हैं कि यहां की अर्थव्यवस्था को उन्नत बनाने के लिए कृषि आधारित उद्योग-धंधों की आवश्यकता है और इसके लिए यहां के लोगों को इंतजार है किसी तारणहार की।

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