01 अगस्त, 2009

'कलम के सिपाही' मुंशी प्रेमचंद को याद करें

करीब 129 साल पहले आज के ही दिन काशी (आधुनिक वाराणसी)में शहर से लगभग पंद्रह किलोमीटर दूर लमही गांव में अंग्रेजों के राज में
वाराणसी जिले से कुछ दूरी पर मौजूद लमही नाम के गांव में इसी जगह पर मुंशी प्रेमचंद का जन्म हुआ था।
आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह माने जाने वाले 'उपन्यास सम्राट' मुंशी प्रेमचंद का जन्म हुआ था। 31, जुलाई 1880 में पैदा हुए मुंशी प्रेमचंद न सिर्फ हिन्दी साहित्य के सबसे महान कहानीकार माने जाते हैं बल्कि देश की आजादी की लड़ाई में भी उन्होंने अपने लेखन से नई जान फूंक दी थी।

वाराणसी शहर से दूर 129 वर्ष पहले कायस्थ, दलित, मुस्लिम और ब्राहमणों की मिली जुली आबादी वाले इस गांव में पैदा हुए मुंशी प्रेमचंद ने सबसे पहले जब अपने ही एक बुजुर्ग रिश्तेदार के बारे में कुछ लिखा और उस लेखन का उन्होंने गहरा प्रभाव देखा तो तभी उन्होंने निश्चय कर लिया कि वह लेखक बनेंगे।

प्रेमचंद ने जब उर्दू साहित्य छोड़कर हिन्दी साहित्य में पदार्पण किया तो उस समय हिन्दी भाषा और साहित्य पर बांग्ला साहित्य का प्रभाव छा रहा था। हिन्दी को विस्तृत चिंतन भूमि तो मिल गई थी पर उसका स्वत्व खो रहा था।

प्रेमचंद ने हिन्दी साहित्य में आते ही हिन्दी की सहज गंभीरता और विशालता को भाव-बाहुल्य और व्यक्ति विलक्षणता से उबारने का दृढ़ संकल्प लिया। हिन्दी वाणी को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने एक नयी बौद्धिक जन परम्परा को जन्म दिया।

प्रेमचंद ने कुल लगभग दो सौ कहानियां लिखी हैं। उनकी कहानियों का वातावरण बुन्देलखंडी वीरतापूर्ण कहानियों तथा ऐतिहासिक कहानियों को छोड़कर वर्तमान देहात और नगर के निम्न मध्यवर्ग का है। उनकी कहानियों में वातावरण का बहुत ही सजीव और यथार्थ अंकन मिलता है। जितना आत्मविभोर होकर प्रेमचंद ने देहात के पार्श्वचित्र लिए हैं उतना शायद ही दूसरा कोई भी कहानीकार ले सका हो। इस चित्रण में उनके गांव लमही और पूवा'चल की मिट्टी की महक साफ परिलक्षित होती है।

तलवार कहते हैं कि प्रेमचंद की कहानियां सद्गति, दूध का दाम, ठाकुर का कुआं, पूस की रात, गुल्ली डंडा, बड़े भाई साहब आदि सहज ही लोगों के मन मस्तिष्क पर छा जाती हैं और इनका हिन्दी साहित्य में जोड़ नहीं है।

उन्होंने कहा, प्रेमचंद से बड़ा कहानीकार हिन्दी साहित्य में दूसरा कोई नहीं हुआ। इसके अलावा देश की स्वाधीनता के लिए भी उन्होंने अनेक वाली कहानियां लिखीं और स्वयं एक पत्र में लिखा, जीवन का उद्देश्य यह है कि देश की आजादी की लड़ाई के लिए साहित्य लेखन करूं। कहानीकार के अलावा प्रेमचंद आलोचक, नाटककार, निबंधकार, सम्पादक और अनुवादक भी थे। आलोचना के माध्यम से उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के अपनी मान्यताओं को सामने रखा है। उनके नाटक और हैं।

प्रेमचंद की अनुवाद कृतियों में सृष्टि का आरंभ (बर्नार्ड शा), टालस्टाय की कहानियां, सुखदास (जॉर्ज इलियट का साइलस मानर), अहंकार (अनातोले फ्रांस कृत थाया), चांदी की डिबिया, न्याय, हड़ताल (तीनों गाल्सवादी के नाटकों के अनुवाद) और आजाद कथा (रतननाथ सरशार) आदि शामिल हैं। मैनेजर पांडेय और सुरेशचंद दूबे मानते हैं कि निम्न-मध्यवर्ग के कुलीन कायस्थ अजायबलाल के पुत्र प्रेमचंद के जीवन की लगभग अंतिम मानी जाने वाली कहानी ने तो हिन्दी कहानी की दिशा ही बदल दी।

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